संपादकीय

आधुनिकता की चकाचौंध में गुम होता सावन, वो झूले, मल्हार, सखा सहेलियों का बचपन सबकुछ ओझल सा हुआ जा रहा है

बचपन के वो दिन वो माटी का चूल्हा, बहुत याद आता है वो सावन का झूला!

पंकज सिंह चौहान

लखनऊ (करण वाणी)। बड़े बड़े नीम और आम के पेड़ों पर मोटे रस्से से पड़े झूले और सखा सहेलियों की टोलियां झूले का आनंद लेते थे। झूले को झोंका देते हुए महिलाएं मल्हार गाती थी और हल्की बारिश की फुहारों में झूले पर लंबी लंबी पैंग बढ़ाकर झूले को तेज करते हुए पेड़ों की शाखाओं को छू लेना बड़ा ही सुखद मंजर था। बच्चे बूढ़े और जवान अपने अपने हमउम्र साथियों के साथ पूरे सावन माह का भरपूर आनंद लिया करते थे। ऐसा हुआ करता था सावन का महीना। वो झूले, मल्हार, सखा सहेलियों का बचपन सबकुछ ओझल सा हुआ जा रहा है। अब लोगों को पता ही नही चलता कि सावन कब आकर गुजर जाता है। अब वही बचपन आधुनिक खेलों में उलझकर रह गया है। इंसान की जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई है कि उसे अब इन चीजों की परवाह नहीं रहती। इंसान ने अपनी सारी जिंदगी खेलकूद और मोबाइल तक ही सीमित कर ली है। इस तरह सावन के झूले भी अपना अस्तित्व खो रहे हैं।

सावन माह के शुरूवात में ही गांव- गांव नीम व आम के पेड़ों पर रस्सी के सहारे सावन के झूले डाले जाते थे। जहां पर सैकड़ों लोगों का जनसमूह एकत्र होता था। इसके बाद अपनी अपनी बारी का इंतजार करके लोग उस झूले का आनंद लेते थे। कभी कभी तो ऐसा होता था कि सावन के मौके पर इस रस्सी के झूले पर एक से लेकर 5 लोग एक साथ बैठकर झूले का आनंद लेते थे। सौहार्द और प्रेम के भाव से ओतप्रोत वह जनसमूह सावन के माह में देखने को मिलता था लेकिन आज गांव में ऐसा जनसमूह देखने को नहीं मिलता। अब गांव के बागों में बड़े बड़े नीम व आम के झूलों की परंपरा घरों के छत या बीम के कुंडे में सिमटकर रह गई है।

स्मार्टफोन में सिमटकर रह गया सावन

बच्चों की जिद पर घर में छोटे झूले डाल दिये जाते हैं। इस तरह नन्हे मुन्ने बच्चे ही इस परंपरा का अस्तित्व बचाए हुए हैं। सच कहा जाए तो अब झूले को लोग बच्चों का खेल समझते हैं। दरअसल इस भागदौड़ की जिंदगी में लोग व्यस्त हो गए हैं। इसका सीधा असर बच्चों पर पड़ता है। इन परंपराओं से अनभिज्ञ बच्चे भी अब ज्यादातर समय स्मार्टफोन के गेम खेलने में व्यतीत करते हैं। सावन के झूलों की बस यादें ही रह गई। संयोगवश कहीं कहीं गांव में आज आपको सावन के झूले दिख जाएंगे, लेकिन उन झूलों के आसपास छोटे- छोटे बच्चों की टोलियां दिखती हैं। क्योंकि इन झूलों का आनंद अब बड़े लोग नहीं उठाते। सच कहूँ तो इस सावन में भी फुहारों में साथियों साथ झूले में पैंग बढ़ाने का वो मंजर याद आ जाता है। जिस तरह झूलो की परंपरा विलीन होती जा रही है। ऐसे तो कुछ वर्षों बाद सावन और झूले महज कहानी बनकर रह जाएंगे। राजा रानी की तरह दादी और नानी आने वाली पीढ़ियों को झूलों की कहानी सुनाया करेंगी।

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