संपादकीय

अंबेडकर का नाम बर्दाश्‍त ना करने वाले अखिलेश क्षत्रियों को दलित विरोधी बता रहे!

क्षत्रिय कभी दलित हितैषी बनने का ढोंग नहीं किया बल्कि क्षत्रिय आदिकाल से दलित हितैषी विचारधारा का पोषक रहा है। क्षत्रिय महापुरुषों ने अपने नागरिकों की रक्षा के लिये बिना भेदभाव कुर्बानी दे दी, राणा सांगा के ही वंशज राणा प्रताप ने अपनी लड़ाई दलित आदिवासियों के साथ मिलकर, उनके साथ रोटी खाकर लड़ी।

अनिल कुमार/वरिष्ठ पत्रकार

समाजवादी पार्टी के रणनीतिकार रामजी लाल सुमन से महापुरुषों को गाली दिलवाकर जातीय संर्घष के जरिये सत्‍ता पर काबिज होना चाहते हैं। वह क्षत्रिय बनाम दलित का नरेटिव बनाकर योगी आदित्‍यनाथ को घेरना चाहते हैं। पर यह नरेटिव कल भी फेल हुआ था और आगे भी फेल होता रहेगा, क्‍योंकि जो सच है वह ज्‍यादा देर तक छुपता नहीं है। क्षत्रिय बनाम दलित के नरेटिव को मजबूत करने के लिये ब्राह्मण वर्ग के भी चुनिंदा लोग लगे हुए हैं, लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आज अखिलेश यादव दलित बनाम क्षत्रिय करा रहे हैं तो चुनाव जीतने के लिये कल को दलित या पिछड़ा बनाम ब्राह्मण भी करायेंगे ही। यह अवश्‍यंभावी है, क्‍योंकि अखिलेश का उद्देश्‍य दलित या पिछड़ों का भला नहीं बल्कि सत्‍ता पाकर केवल अपने परिवार और केवल एक ही जाति को मजबूत करना है। इसका उदाहरण सपा के अतीत के राजकाज में देखा जा सकता है।

अखिलेश का सांसद सुमन, जिस राणा सांगा के जरिये क्षत्रियों और दलितों को आपस में लड़ाना चाहता है, उस राणा सांगा के इतिहास को खंगालेंगे तो यह नरेटिव अपने आप ध्‍वस्‍त हो जायेगा कि क्षत्रिय कभी दलित विरोधी हो सकता है। राणा सांगा और उनकी पत्‍नी रानी झाली के गुरु बनारस के संत रविदास जी थे। राणा सांगा एक बार रानी झाली के साथ बनारस आये थे। स्‍थानीय लोगों से संत रविदास के बारे में सुनकर वह उनका सत्‍संग सुनने पहुंच गये। राणा दंपत्ति संत रविदास से इतने प्रभावित हुए कि दोनों ने उन्‍हें अपना गुरु बना लिया। राजकीय अतिथि के रूप में संत रविदास को चित्‍तौड़गढ़ आने का निमंत्रण दिया। हालांकि एक दलित को राजकीय अतिथि बनाने का विरोध हुआ, लेकिन राणा सांगा इससे विचलित नहीं हुए। उन्‍होंने चित्‍तौड़गढ़ में उनके लिये आश्रम बनवा दिया। संत रविदास का चितौड़गढ़ आना जाना लगा रहा।

राणा सांगा और रानी झाली के पुत्र भोजराज का विवाह भी मीराबाई के साथ संत रविदास की उपस्थिति में हुआ। संत रविदास, जो उस समय छूआछूत और असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे, उन्‍हें राणा सांगा से अत्‍यंत मजबूत सहयोग मिला। इसका परिणाम ही था कि राणा सांगा की पुत्र वधु मीराबाई ने भी संत रविदास को ही अपना गुरु बना लिया और कृष्‍ण भक्ति में लीन हो गईं। दलित हितैषी बनने का ढोंग करने वाली समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया अखिलेश यादव, जिन्‍होंने दलित संतों के नाम पर स्‍थापित जिले एवं अंबेडकर पार्क का नाम अपने शासनकाल में बदल दिये, उन्‍हें याद रखना चाहिये कि राणा सांगा के चित्‍तौड़गढ़ में मीरा मंदिर के सामने एक मंडप है, जिस पर दलित संत रविदास के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं, जिन्‍हें राणा सांगा के वंशजों ने ही बनवाया है। आप तो इतने बड़े दलित हितैषी थे कि अंबेडकर के नाम पर आपको एक पार्क तक सहन नहीं हुआ।

खैर, क्षत्रिय कभी दलित हितैषी बनने का ढोंग नहीं किया बल्कि क्षत्रिय आदिकाल से दलित हितैषी विचारधारा का पोषक रहा है। इतिहास अपने समकाल के हिसाब से तय होता है, लेकिन आजकल इतिहास को वर्तमान के अनुसार तय किये जाने की परंपरा सी चल पड़ी है। जिन क्षत्रिय महापुरुषों ने अपने नागरिकों की रक्षा के लिये बिना भेदभाव कुर्बानी दे दी, सियासी लाभ के लिये उन्‍हें गद्दार और दलित विरोधी साबित करने की नापाक कोशिश हो रही है। राणा सांगा के ही वंशज राणा प्रताप ने अपनी लड़ाई दलित आदिवासियों के साथ मिलकर, उनके साथ रोटी खाकर लड़ी, उसी के वंशजों को दलित विरोध साबित करने का नरेटिव सेट किया जा रहा है। तात्‍कालिक तौर पर समाजवादी पार्टी या अखिलेश यादव को भले ही यह लाभ का सौदा दिख रहा हो, लेकिन आचरण साबित करता है कि असल दलित शुभचिंतक कौन है?

क्षत्रिय के दलित हितैषी होने का इतिहास तो प्रभावी रहा ही है, वर्तमान भी उसका उदाहरण है। सत्‍ता मिलने पर दलित हितैषी अखिलेश यादव ने दलित संतों के नाम पर स्‍थापित जिलों के नाम बदल दिये, लेकिन किसी दलित समूह या समाज की चिंता नहीं की, चिंता केवल यादव एवं मुसलमानों की ही की। जब योगी आदित्‍यनाथ मुख्‍यमंत्री बने तो उन्‍होंने सबसे पहले किसी का भला करने की चिंता की तो वह वनटांगियों का भला करने की चिंता की। वनटांगिये कोई क्षत्रिय नहीं थे बल्कि वह दलित समुदाय से आते हैं। आजादी के बाद तक वनटांगियों की किसी भी मुख्‍यमंत्री ने सुध नहीं ली। इन दलित वनटांगियों के पास ना तो बिजली थी, ना घर था, ना वोट देने का अधिकार था, ना राशन पाने का हक था, 75 सालों में दलित हितैषी अखिलेश भी मुख्‍यमंत्री बने और उनके पिता भी, लेकिन वनटांगियों के बारे में तनिक भी ख्‍याल नहीं आया।

योगी आदित्‍यनाथ मुख्‍यमंत्री बने तो सबसे पहले उन्‍होंने वनटांगियों को ही मुख्‍य धारा में लाने में अपनी समूची ऊर्जा लगा दी। उन्‍होंने ना केवल दलित आदिवासी वनटांगियों को मुख्‍यधारा में शामिल कराया, अपितु उन्‍हें आजादी के 72 साल बाद वोट देने का अधिकार दिलवाया। इसके बाद उस इन्‍फेलाइटिस से मुक्ति दिलाने में अपनी ताकत झोंक दी, जिससे दलित एवं पिछड़ों ही सबसे ज्‍यादा प्रभावित थे। जानबूझकर योगी आदित्‍यनाथ के खिलाफ जातीय नरेटिव सेट करने की कोशिश की जाती है, क्‍योंकि उसके अलावा उनको घेर पाना आसान नहीं है। अखिलेश के ही ब्‍लू आइज ब्‍वॉय अतीक अहमद के कब्‍जे से मुक्‍त करायी गई सरकारी जमीन पर योगी ने घर बनवाकर किसी क्षत्रिय को नहीं दिया बल्कि उसे दलित एवं पिछड़ों को ही आवंटित किया गया। अखिलेश और उनके सांसद चाहे जितनी कोशिश कर लें, इतिहास और वर्तमान दोनों गवाह हैं कि क्षत्रिय कभी दलित का विरोधी नहीं रहा है।

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति karnvaninews उत्तरदायी नहीं है।)

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