संपादकीय

प्राइवेट स्कूल बन चुके हैं प्राइवेट लिमिटेड कंपनी

योगी जी एक बार बुलडोजर शिक्षा माफियाओं पर भी…

100 रुपए की किताबें 500 में, एक हजार की यूनिफॉर्म ढाई हजार रुपए में

50 फीसदी कमीशन का खेल: हर स्कूल की अपनी स्टेशनरी और ड्रेस दुकान फिक्स

पंकज सिंह चौहान/ करण वाणी न्यूज़

प्राइवेट स्कूल यानी बिना घाटे का व्यापार। इनवेस्टमेंट भी एक ही बार, फिर मुनाफा ही मुनाफा। इस पर किसी का अंकुश भी नहीं। शिक्षा के लिए खोले जा रहे प्राइवेट स्कूल इन दिनों सबसे बड़ा कमाई का जरिया बनकर उभरे हैं। अधिकतर स्कूलों में मनमाफिक फीस के नाम पर अभिभावकों को लूटा जा रहा है, लेकिन अभिभावकों की भी मजबूरी है कि वे आवाज तक नहीं उठा सकते।

स्कूलों के खिलाफ बोलें, तो बच्चे के भविष्य पर तलवार लटक जाती है। हालांकि प्राइवेट स्कूलों की मनमानी के खिलाफ शहर में इन दिनों आवाज बुलंद होने लगी है, लेकिन जब तक सभी अभिभावक नहीं जागेंगे, सरकारी तंत्र की नींद भी नहीं खुलेगी और यह खुला लूट का खेल चलता रहेगा।

यूं तो स्कूलों की मंशा बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाना होती है, लेकिन अब संचालकों का उद्देश्य कमाई हो गया है। इनका ध्यान हर साल फीस बढ़ाने और कमाई के अन्य तरह के विकल्प खोजने में लगा रहता है। ड्रेस से लेकर किताबों में भी कमाई का माध्यम ढूंढ़ते रहते हैं।

इनकी मोटी कमाई पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी तंत्र ने तो मानो तौबा कर ली है। आखिर ये भी किस अधिकार से बोलें, जनप्रतिनिधि से लेकर सरकारी अफसरों तक के बच्चे भी तो बड़े नाम वाले प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा लेते हैं। ऐसे में प्राइवेट स्कूल संचालक बेलगाम होकर अभिभावकों की जेब काटने का काम कर रहे हैं। स्कूलों में मनमानी फीस को लेकर अभिभावक विरोध करने से डरते रहें है।

फरवरी-मार्च आते ही प्रदेश के लगभग सभी बड़े शहरों में नर्सरी स्कूलों में एडमिशन को लेकर बवाल हो जाते हैं। कहीं फार्म की मनमानी कीमतों को लेकर असंतुष्टि रहती है तो कोई सरकार द्वारा तय मानदंडों का पालन न होने से रूष्ट। हालात इतने बद्तर हैं कि तीन साल के बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना आईआईटी की फीस से भी महंगा हो गया है। माहौल ऐसा हो गया है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति न तो संवेदना रह गई है और न ही सहानुभूति। ऐसा अविश्वास का माहौल बन गया है, जो बच्चे का जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ेगा।

शिक्षा का व्यापारीकरण कितना खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब संवेदनहीन होकर अपने ज्ञान को महज पैसा बनाने की मशीन बनाकर इस्तेमाल करना शुरू करेगी, तब समाज और सरकार को इस भूल का एहसास होगा। दिल्ली में तो कई पालक अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए फर्जी आय प्रमाण पत्र बनवाने से भी नहीं चूके और ऐसे कई लेाग जेल में हैं व बच्चे स्कूल से बाहर सड़क पर।

कहा जाता है कि उन दिनों ज्ञानार्जन का अधिकार केवल उच्च वर्ग के लोगों के पास हुआ करता था। इस ‘तथाकथित’ मनुवाद को कोसने का इन दिनों कुछ फैशन-सा चला है, या यों कहें कि इसे सियासत की सहज राह कहा जा रहा है। लेकिन आज की खुले बाजार वाली मुक्त अर्थव्यवस्था से जिस नए ‘मनीवाद’ का जन्म हो रहा है, उस पर चहुंओर चुप्पी है। लक्ष्मी साथ है तो सरस्वती के द्वार आपके लिए खुले हैं, अन्यथा सरकार और समाज दोनों की नजर में आपका अस्तित्व शून्य है। इस नए ‘मनुवाद’, जो मूल रूप से ‘मनी वाद’ है, का सर्वाधिक शिकार प्राथमिक शिक्षा ही रही है।

यह सर्वविदित है कि प्राथमिक शिक्षा किसी बच्चे के भविष्य की बुनियाद है। हमरे देश में प्राथमिक स्तर पर ही शिक्षा लोगों का स्तर तय कर रही है। एक तरफ कंप्यूटर, एसी, खिलौनों से सज्जित स्कूल हैं तो दूसरी ओर ब्लैक बोर्ड, शौचालय जैसी मूलभूत जरूरत को तरसते बच्चे। प्रदेश की राजधानी लखनऊ सहित बड़े शहरों में में दो-ढाई साल के बच्चों का कतिपय नामीगिरामी प्री-स्कूल प्रवेश चुनाव लड़ने के बराबर कठिन माना जाता हैं। यदि जुगाड़ लगा कर कोई मध्यम वर्ग का बच्चा इन बड़े स्कूलों में पहुंच भी जाए तो वहां के ढकोसले-चोंचले झेलना उसके बूते के बाहर होता है। ठीक यही हालात अन्य महानगरों के भी हैं।

बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’ देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना, सालभर में एक-दो पिकनिक या टूर ये ऐसे व्यय हैं, जिन पर हजारों का खर्च यूं ही हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी, जूते, वो भी स्कूल द्वारा तयशुदा दुकानों से खरीदने पर स्कूल संचालकों के वारे-न्यारे होते रहते हैं।

शहर की नामी निजी स्कूलों से जुड़े जानकारों का कहना है कि निजी स्कूल संचालक स्कूल से अधिक स्टेशनरी एवं ड्रेस की दुकान से कमीशन के रूप में कमाई करते हैं। स्टेशनरी दुकानदार निजी प्रकाशकों की किताब अभिभावकों को दस गुना अधिक दाम पर बेच कर स्कूल संचालकों को 50 फीसदी तक कमीशन देते हैं। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि निजी प्रकाशक की 25 पन्ने की अंगेजी ग्रामर की किताब जिसकी कीमत महज 100 रुपए होनी चाहिए। उसमें 550 रुपए प्रिंट रेट डालकर अभिभावकों से मनमानी दाम वसूले जा रहे हैं। वहीं निजी स्कूल की ड्रेस जिनकी ओपेन बाजार में कीमत अधिकतम एक हजार रुपए है वे ड्रेस फिक्स दुकानों में अभिभावकों को 2500 रुपए में बेचे जा रहे हैं।

शहर के सीबीएसई अंग्रेजी माध्यम के अधिकांश स्कूल निजी प्रकाशकों की किताब व ऐसे यूनिफार्म चला रहे हैं जो शहर में एक फिक्स स्टेशनरी दुकान में ही मिलती है। स्कूलों की किताब कॉपी शहर की हर स्टेशनरी दुकान में उपलब्ध नहीं है। इतना ही नहीं स्कूलों में तो बच्चों को स्टेशनरी और ड्रेस स्कूल से ही किट के रूप में उपलब्ध कराया जाता है।

 

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